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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


अंगूठी की खोजः
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मनुष्य में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं। एक तो देव-प्रवृत्ति और दूसरी राक्षसी न जाने क्यों वृजांगना को देखते ही मेरी देव-प्रवृत्ति किधर अंतर्हित हो जाती और राक्षसी प्रवृत्ति इतनी प्रबल हो उठती कि उसे रोकना मेरे लिए बहुत कठिन हो जाता । वृजांगना को देखते ही मेरा ज्ञान, मेरा विवेक और मेरी बुद्धि जैसे सभी मेरा साथ छोड़ देते थे। इसके लिए मैं अपने-आपको न जाने कितना धिक्कारता था। नवलकिशोर को भैया और वृजांगना को भाभी कहा करता था। सचमुच ही उनके प्रति मेरे हृदय में यही पूज्य भाव थे। एकांत में इस दलील को सामने रखकर मैंने अपनी इन राक्षसी प्रवृत्तियों को कुचल डालने का न जाने कितना प्रयत्न किया। मैं चरित्रहीन न था; विवाहिता स्त्री मेरे लिए देवी की तरह पूज्य और आदर योग्य होती थी। वृजांगना को भी मैं इसी पूज्य दृष्टि से देखा करता था। उसके लिए मेरे हृदय में बड़े पवित्र और आदर के भाव थे; किंतु यह पवित्र भाव उसी समय तक टिक सकते जब तक वह मेरे सामने न होती।

वृजांगना जैसे ही मेरे सामने आती मुझ पर न जाने कहाँ का राक्षस सवार हो जाता। मैं एक ज्ञानहीन पशु से भी गया बीता बन जाता। मैं अपनी ही आँखों में बड़ा पतित जंचने लगता। पर मेरा हृदय मेरे काबू से बाहर था। मेरी दोनों प्रवृत्तियों का आपस में युद्ध-सा रहता था। कभी-कभी तो मैं बड़ा ही उद्विग्न और व्यथित-सा हो जाता। मेरी इस विचलित अवस्था को वृजांगना और नवलकिशोर देखते परंतु मेरी मानसिक स्थिति को वह क्‍या समझ सकते थे? वे अपने प्रयत्न-भर सदा हर प्रकार से मुझे खुश रखने की ही फिकर में रहते। उनका व्यवहार मेरे प्रति मधुरतर और प्रेमपूर्ण हो जाता था।

अपनी इस दानवी प्रवृत्ति को हर प्रकार से दबाने के लिए मैंने कई बार निश्चय किया कि मैं उनके घर ही न जाया करूँ। और इस उपाय में मैं कई बार आंशों तक सफल भी हुआ। परंतु मेरे ही न जाने से क्या हो सकता था? कई बार ऐसा हुआ कि मैं सुबह से शाम तक उनके घर नहीं गया, तो वृजांगना या नवलकिशोर अथवा कभी-कभी दोनों, मेरे घर पहुँच जाते और मेरा किया-कराया निश्चय मिट्टी में मिल जाता। उनके आग्रह और विशेषकर वृजांगना के प्रेमपूर्ण अनुरोध को टालने की मुझमें शक्ति न थी। विवश होकर मुझे उनके साथ फिर जाना पड़ता।

देवी वृजांगना और साधु-प्रकृति नवलकिशोर मेरे इन कुत्सित मनोभावों से परिचित न थे। मेरी दानवी प्रवृत्तियाँ कितनी भीषण, कितनी भयंकर और कितनी प्रबल हैं, मैं स्वयं भी तो न जानता था। परंतु उन्हें कुचलने के लिए, उनसे मुक्ति पाने के लिए जो कुछ भी किया जा सकता था, मैंने सब कुछ किया। साल भर बाद-

वही चैती पूर्णिमा थी और वही संध्या का समय, वही मन को फिसलाने वाली चांदनी रात; और थी वही वासंती हवा; आज फिर मैं बहुत उद्विग्न था। न जाने क्‍यों किसी मित्र का भी साथ न मिला और मैं घूमता हुआ कंपनी बाग के उसी कोने में पहुँच गया। मेरी चिर-परिचित बेंच कदाचित्‌ मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी। मैं उस पर गिर-सा पड़ा और क्षण भर के लिए मैंने उसी शांति का अनुभव किया जो बालक माता की गोद में पाता है। क्षण भर बाद ही, साल भर पहले की एक-एक स्मृति सिनेमा के चित्रपट की तरह मेरी आँखों के सामने फिरने लगी। इस जगह हरी दूब पर व्याकुलता से मेरा लेटना, घूमती हुई रमणियों का आना, अँगूठी का गिरना और फिर उनकी खोज। मुझे याद आया, उस दिन भी मैं बहुत विकल था। संसार से विरक्त और जीवन से थका हुआ । आज मैं बहुत आंशों में संसार में अनुरक्त था, परंतु शांति जीवन में आज भी न थी। साल भर पहले की उस अशांति से आज की अशांति कहीं अधिक उद्देगपूर्ण, भीषण और प्रलयंकारी थी। इस अशांति में मैं जला जा रहा था। मुक्ति का मार्ग दूँढ़े भी न मिल रहा था। अंत में बहुत कुछ सोचने- विचारने के बाद मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि मुझे यह नगर छोड़ देना चाहिए। नगर छोड़ने का पक्का निश्चय करके मैंने एक प्रकार की शक्ति-सी पाई।

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